जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है

रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूँ

रोज़ उंगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है

दिल की गलियों से तेरी याद निकलती ही नहीं

सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है

रात भर जागते रहने का सिला है शायद

तेरी तस्वीर-सी महताब* में आ जाती है

एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा

सारी दुनिया दिले- बेताब में आ जाती है

ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा
** ओढ़े हुए
कूचा - ए - रेशमो -किमख़्वाब में आ जाती है

दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें

सारी मिट्टी मिरे तालाब में आ जाती है

शब्दार्थ:
* चांद
**चादर

0 comments:

Follow us on Twitter! Follow us on Twitter!
Replace this text with your message